हे प्रिये...
तुमने मुझे सदैव, परीक्षक की आंखों से देखा है!
प्रेम की नहीं,
क्या तुम, इतना भी नहीं जान पाए?
नारी परीक्षा नहीं, प्रेम चाहती है,
परीक्षा गुणों को भी अवगुण,
सुन्दर को भी असुन्दर बना देती है,
जबकि प्रेम!
अवगुणों को भी गुण,असुन्दर को भी सुन्दर
मैंने तुमसे प्यार किया है,
मै सोच भी नहीं पाती कि, तुम में कोई बुराई भी है!
किन्तु तुमने मेरी परीक्षा ली, और मुझे अस्थिर, चंचल और
जाने क्या क्या समझकर, मुझसे दूर भागते रहे
नहीं !
मै जो कुछ हूं, वो मुझे कह लेने दो,
मैं क्यों अस्थिर और चंचल हूं,
क्योिंक मुझे, वो प्यार ही नहीं मिला,
जो मुझे स्थिर और अचंचल बनाते
मेरे सामने उसी तरह, समर्पण किया होता
जैसे मैंने, तुम्हें किया है,
तो आज मुझपे ये आक्षेप ना लगाते
...... सिर्फ तुम्हारी
तुम्हारें दर्शन की अभिलाषी
----- कृति : हीजना सुमैया
No comments:
Post a Comment